भगवान शंकर को रूद्र नाम से भी जाना जाता है। इस पोस्ट में रुद्री पाठ हिंदी में pdf के बारे में विस्तार से बताया गया है। अगर आप रुद्री पाठ हिंदी में pdf फाइल को प्राप्त करना चाहते है तो निचे दिए लिंक पर क्लिक कर ले सकते है। रुद्री पाठ हिंदी में pdf फाइल सबके के लिए बिलकुल फ्री है।
धार्मिक ग्रंथों में इसकी महिमा का गुणगान किया गया है। इस शब्द का यजुर्वेद में अनेकों बार उल्लेख हुआ है। रूद्र यानि रुत, एवं रुत का अर्थ होता है, दुखों का नाश करने वाला यानि जो दुखों का नाश करे वही रूद्र है। यानि भगवान शंकर, क्योंकि वही समस्त संसार के दुखों का नाश कर इस संसार का कल्याण करते हैं।
इस समय भगवान शिव के मनमोहक श्रावण मॉस में समस्त शिव मंदिरों में रुद्राभिषेक या रुद्री पाठ की भव्यता देखने को मिलती है। सावन मॉस में शिवभक्त शिवलिंग पर रुद्राध्यायी के मन्त्रों से दुध या जल का अभिषेक करते हैं। परन्तु ऐसा माना जाता है कि, रुद्राष्टाध्याय का पाठ करते हुए शिवाभिषेक किया जाये, तो व्यक्ति के समस्त जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं।
रूद्र पाठ का अर्थ होता है कि, शिव की इस प्रकार की पूजा जो दुखों को नष्ट कर देती है। यजुर्वेद में इस शब्द का अनेकों बार उल्लेख किया गया है। भगवन शंकर के रूद्र रूप की पूजा का व्यक्ति को विशेष फल मिलता है। एवं रुद्राष्टाध्यायी को तो यजुर्वेद का अंग बताया गया है। शिव के इस रूप की पूजा करने से व्यक्ति के जन्म-जन्मांतर के पाप धूल जाते हैं।
Rudri Path pdf लिंक
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Rudri Path pdf संक्षिप्त विवरण
File Name | Rudri Path Pdf |
File Type | |
Language | Hindi |
Category | Religion |
No. of Pages | 13 Pages |
File Size | 514 KB |
File Status | Active |
Uploaded By | Rajesh Kushwaha |
Rudri Path in Hindi Pdf Lyrics
Rudri Pathi निचे डाल दिया गया है आप सभी भक्तों से उम्मीद करता हूँ की आप लोग समयनुसार रुद्री पाठ करते रहेंगे। प्रिय भक्तो आप सभी रुद्री पाठ हिंदी में pdf से पाठ के याद कर सकते है।
“संपूर्ण रुद्री पाठ ”
ॐ अथात्मानग्ं शिवात्मानग् श्री रुद्ररूपं ध्यायेत्॥
शुद्धस्फटिक संकाशं त्रिनेत्रं पंच वक्त्रकम्।
गंगाधरं दशभुजं सर्वाभरण भूषितम्॥
नीलग्रीवं शशांकांकं नाग यज्ञोप वीतिनम्।
व्याघ्र चर्मोत्तरीयं च वरेण्यमभय प्रदम्॥
कमंडल्-वक्ष सूत्राणां धारिणं शूलपाणिनम्।
ज्वलंतं पिंगलजटा शिखा मुद्द्योत धारिणम्॥
वृष स्कंध समारूढम् उमा देहार्थ धारिणम्।
अमृतेनाप्लुतं शांतं दिव्यभोग समन्वितम्॥
दिग्देवता समायुक्तं सुरासुर नमस्कृतम्।
नित्यं च शाश्वतं शुद्धं ध्रुव-मक्षर-मव्ययम्।
सर्व व्यापिन-मीशानं रुद्रं वै विश्वरूपिणम्।
एवं ध्यात्वा द्विजः सम्यक् ततो यजनमारभेत्॥
अथातो रुद्र स्नानार्चनाभिषेक विधिं व्या॓क्ष्यास्यामः।
आदित एव तीर्थे स्नात्वा उदेत्य शुचिः प्रयतो ब्रह्मचारी शुक्लवासा देवाभिमुखः स्थित्वा आत्मनि देवताः स्थापयेत्॥
प्रजनने ब्रह्मा तिष्ठतु। पादयोर्-विष्णुस्तिष्ठतु। हस्तयोर्-हरस्तिष्ठतु। बाह्वोरिंद्रस्तिष्टतु।
जठरे अग्निस्तिष्ठतु। हृद॑ये शिवस्तिष्ठतु।
कंठे वसवस्तिष्ठंतु। वक्त्रे सरस्वती तिष्ठतु।नासिकयोर्-वायुस्तिष्ठतु।
नयनयोश्-चंद्रादित्यौ तिष्टेताम्। कर्णयोरश्विनौ तिष्टेताम्।
ललाटे रुद्रास्तिष्ठंतु।
मूर्थ्न्यादित्यास्तिष्ठंतु।
शिरसि महादेवस्तिष्ठतु।
शिखायां वामदेवास्तिष्ठतु।
पृष्ठे पिनाकी तिष्ठतु।
पुरतः शूली तिष्ठतु।
पार्श्ययोः शिवाशंकरौ तिष्ठेताम्।
सर्वतो वायुस्तिष्ठतु।
ततो बहिः सर्वतो ग्निर्-ज्वालामाला-परिवृतस्तिष्ठतु।
सर्वेष्वंगेषु सर्वा देवता यथास्थानं तिष्ठंतु।
माग्ं रक्षंतु।
अ॒ग्निर्मे॑ वा॒चि श्रि॒तः। वाग्धृद॑ये। हृद॑यं॒ मयि॑। अ॒हम॒मृते॓। अ॒मृतं॒ ब्रह्म॑णि।
वा॒युर्मे॓ प्रा॒णे श्रि॒तः। प्रा॒णो हृद॑ये। हृद॑यं॒ मयि॑। अ॒हम॒मृते॓। अ॒मृतं॒ ब्रह्म॑णि।
सूर्यो॑ मे॒ चक्षुषि श्रि॒तः। चक्षु॒र्-हृद॑ये। हृद॑यं॒ मयि॑। अ॒हम॒मृते॓। अ॒मृतं॒ ब्रह्म॑णि।
च॒द्रमा॑ मे॒ मन॑सि श्रि॒तः। मनो॒ हृद॑ये। हृद॑यं॒ मयि॑। अ॒हम॒मृते॓। अ॒मृतं॒ ब्रह्म॑णि।
दिशो॑ मे॒ श्रोत्रे॓ श्रि॒ताः। श्रोत्र॒ग्॒ं॒ हृद॑ये। हृद॑यं॒ मयि॑। अ॒हम॒मृते॓। अ॒मृतं॒ ब्रह्म॑णि।
आपोमे॒ रेतसि श्रि॒ताः। रेतो हृद॑ये। हृद॑यं॒ मयि॑। अ॒हम॒मृते॓। अ॒मृतं॒ ब्रह्म॑णि।
पृ॒थि॒वी मे॒ शरी॑रे श्रि॒ताः। शरी॑र॒ग्॒ं॒ हृद॑ये। हृद॑यं॒ मयि॑। अ॒हम॒मृते॓। अ॒मृतं॒ ब्रह्म॑णि।
ओ॒ष॒धि॒ व॒न॒स्पतयो॑ मे॒ लोम॑सु श्रि॒ताः। लोमा॑नि॒ हृद॑ये। हृद॑यं॒ मयि॑। अ॒हम॒मृते॓। अ॒मृतं॒ ब्रह्म॑णि।
इंद्रो॑ मे॒ बले॓ श्रि॒तः। बल॒ग्॒ं॒ हृद॑ये। हृद॑यं॒ मयि॑। अ॒हम॒मृते॓। अ॒मृतं॒ ब्रह्म॑णि।
प॒र्जन्यो॑ मे॒ मू॒र्द्नि श्रि॒तः। मू॒र्धा हृद॑ये। हृद॑यं॒ मयि॑। अ॒हम॒मृते॓। अ॒मृतं॒ ब्रह्म॑णि।
ईशा॑नो मे॒ म॒न्यौ श्रि॒तः। म॒न्युर्-हृद॑ये। हृद॑यं॒ मयि॑। अ॒हम॒मृते॓। अ॒मृतं॒ ब्रह्म॑णि।
आ॒त्मा म॑ आ॒त्मनि॑ श्रि॒तः। आ॒त्मा हृद॑ये। हृद॑यं॒ मयि॑। अ॒हम॒मृते॓। अ॒मृतं॒ ब्रह्म॑णि।
पुन॑र्म आ॒त्मा पुन॒रायु॒ रागा॓त्। पुनः॑ प्रा॒णः पुन॒राकू॑त॒मागा॓त्। वै॒श्वा॒न॒रो र॒श्मिभि॑र्-वावृधा॒नः। अ॒ंतस्ति॑ष्ठ॒त्वमृत॑स्य गो॒पाः॥
ॐ अस्य श्री रुद्राध्याय प्रश्न महामंत्रस्य, अघोर ऋषिः, अनुष्टुप् चंदः, संकर्षण मूर्ति स्वरूपो यो सावादित्यः परमपुरुषः स एष रुद्रो देवता।
नमः शिवायेति बीजम्।
शिवतरायेति शक्तिः। महादेवायेति कीलकम्।
श्री सांब सदाशिव प्रसाद सिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः॥
ॐ अग्निहोत्रात्मने अंगुष्ठाभ्यां नमः।
दर्शपूर्ण मासात्मने तर्जनीभ्यां नमः।
चातुर्-मास्यात्मने मध्यमाभ्यां नमः।
निरूढ पशुबंधात्मने अनामिकाभ्यां नमः।
ज्योतिष्टोमात्मने कनिष्ठिकाभ्यां नमः।
सर्वक्रत्वात्मने करतल करपृष्ठाभ्यां नमः॥
अग्निहोत्रात्मने हृदयाय नमः।
दर्शपूर्ण मासात्मने शिरसे स्वाहा।
चातुर्-मास्यात्मने शिखायै वषट्।
निरूढ पशुबंधात्मने कवचाय हुम्।
ज्योतिष्टोमात्मने नेत्रत्रयाय वौषट्।
सर्वक्रत्वात्मने अस्त्रायफट्।
भूर्भुवस्सुवरोमिति दिग्बंधः॥
ध्यानं
आपाताल-नभःस्थलांत-भुवन-ब्रह्मांड-माविस्फुरत्-ज्योतिः स्फाटिक-लिंग-मौलि-विलसत्-पूर्णेंदु-वांतामृतैः।
अस्तोकाप्लुत-मेक-मीश-मनिशं रुद्रानु-वाकांजपन् ध्याये-दीप्सित-सिद्धये ध्रुवपदं विप्रोஉभिषिंचे-च्चिवम्॥
ब्रह्मांड व्याप्तदेहा भसित हिमरुचा भासमाना भुजंगैः कंठे कालाः कपर्दाः कलित-शशिकला-श्चंड कोदंड हस्ताः।
त्र्यक्षा रुद्राक्षमालाः प्रकटितविभवाः शांभवा मूर्तिभेदाः रुद्राः श्रीरुद्रसूक्त-प्रकटितविभवा नः प्रयच्चंतु सौख्यम्॥
ॐ ग॒णाना॓म् त्वा ग॒णप॑तिग्ं हवामहे क॒विं क॑वी॒नामु॑प॒मश्र॑वस्तमम्। ज्ये॒ष्ठ॒राजं॒ ब्रह्म॑णां ब्रह्मणस्पद॒ आ नः॑ शृ॒ण्वन्नू॒तिभि॑स्सीद॒ साद॑नम्॥
ॐ महागणपतये॒ नमः॥
ॐ शं च॑ मे॒ मय॑श्च मे प्रि॒यं च॑ मे नुका॒मश्च॑ मे॒ काम॑श्च मे सौमनस॒श्च॑ मे भ॒द्रं च॑ मे॒ श्रेय॑श्च मे॒ वस्य॑श्च मे॒ यश॑श्च मे॒ भग॑श्च मे॒ द्रवि॑णं च मे य॒ंता च॑ मे ध॒र्ता च॑ मे॒ क्षेम॑श्च मे॒ धृति॑श्च मे॒ विश्वं॑ च मे॒ मह॑श्च मे स॒ंविच्च॑ मे॒ ज्ञात्रं॑ च मे॒ सूश्च॑ मे प्र॒सूश्च॑ मे॒ सीरं॑ च मे ल॒यश्च॑ म ऋ॒तं च॑ मे॒உमृतं॑ च मेஉय॒क्ष्मं च॒ मेஉना॑मयच्च मे जी॒वातु॑श्च मे दीर्घायु॒त्वं च॑ मेஉनमि॒त्रं च॒ मे भ॑यं च मे सु॒गं च॑ मे॒ शय॑नं च मे सू॒षा च॑ मे॒ सु॒दिनं॑ च मे॥
ॐ शांतिः॒ शांतिः॒ शांतिः॑॥
श्री रुद्र प्रश्नः
कृष्ण यजुर्वेदीय तैत्तिरीय संहिता
चतुर्थं वैश्वदेवं काण्डम् पञ्चमः प्रपाठकः
ॐ नमो भगवते॑ रुद्राय॥
ॐ नम॑स्ते रुद्र म॒न्यव॑ उ॒तोत॒ इष॑वे॒ नमः॑।
नम॑स्ते अस्तु॒ धन्व॑ने बा॒हुभ्या॑मु॒त ते॒ नमः॑।
या त॒ इषुः॑ शि॒वत॑मा शि॒वं ब॒भूव॑ ते॒ धनुः॑।
शि॒वा श॑र॒व्या॑ या तव॒ तया॑ नो रुद्र मृडय।
या ते॑ रुद्र शि॒वा त॒नूरघो॒रा पा॑पकाशिनी।
तया॑ नस्त॒नुवा॒ शन्त॑मया॒ गिरि॑शन्ता॒भिचा॑कशीहि।
यामिषुं॑ गिरिशन्त॒ हस्ते॒ बिभ॒र्ष्यस्त॑वे।
शि॒वां गि॑रित्र॒ तां कु॑रु॒ मा हिग्ं॑सीः॒ पुरु॑षं॒ जग॑त्।
शि॒वेन॒ वच॑सा त्वा॒ गिरि॒शाच्छा॑वदामसि।
यथा॑ नः॒ सर्व॒मिज्जग॑दय॒क्ष्मग्ं सु॒मना॒ अस॑त्।
अध्य॑वोचदधिव॒क्ता प्र॑थ॒मो दैव्यो॑ भि॒षक्।
अहीग्॑श्च॒ सर्वां॓ज॒म्भय॒न्त्सर्वा॓श्च यातुधा॒न्यः॑।
अ॒सौ यस्ता॒म्रो अ॑रु॒ण उ॒त ब॒भ्रुः सु॑म॒ङ्गलः॑।
ये चे॒माग्ं रु॒द्रा अ॒भितो॑ दि॒क्षु श्रि॒ताः स॑हस्र॒शो वैषा॒ग्॒ं॒ हेड॑ ईमहे।
अ॒सौ यो॑உवसर्प॑ति॒ नील॑ग्रीवो॒ विलो॑हितः।
उ॒तैनं॑ गो॒पा अ॑दृश॒न्-नदृ॑शन्-नुदहा॒र्यः॑।
उ॒तैनं॒ विश्वा॑ भू॒तानि॒ स दृ॒ष्टो मृ॑डयाति नः।
नमो॑ अस्तु नील॑ग्रीवाय सहस्रा॒क्षाय॒ मी॒ढुषे॓।
अथो॒ ये अ॑स्य॒ सत्वा॑नो॒ हं तेभ्यो॑ कर॒न्नमः॑।
प्रमुं॑च॒ धन्व॑न॒स्-त्व॒मु॒भयो॒रार्त्नि॑ यो॒र्ज्याम्।
याश्च ते॒ हस्त॒ इष॑वः॒ परा॒ ता भ॑गवो वप।
अ॒व॒तत्य॒ धनु॒स्त्वग्ं सह॑स्राक्ष॒ शते॑षुधे।
नि॒शीर्य॑ श॒ल्यानां॒ मुखा॑ शि॒वो नः॑ सु॒मना॑ भव।
विज्यं॒ धनुः॑ कप॒र्दिनो॒ विश॑ल्यो॒ बाण॑वाग्म् उ॒त।
अने॑श॒न्-नस्येष॑व आ॒भुर॑स्य निष॒ङ्गथिः॑।
या ते॑ हे॒तिर्-मी॑डुष्टम॒ हस्ते॑ ब॒भूव॑ ते॒ धनुः॑।
तया॒ स्मान्, वि॒श्वत॒स्-त्वम॑य॒क्ष्मया॒ परि॑ब्भुज।
नम॑स्ते अ॒स्त्वायुधा॒याना॑तताय धृ॒ष्णवे॓।
उ॒भाभ्या॑मु॒त ते॒ नमो॑ बा॒हुभ्यां॒ तव॒ धन्व॑ने।
परि॑ ते॒ धन्व॑नो हे॒तिर॒स्मान्-वृ॑णक्तु वि॒श्वतः॑।
अथो॒ य इ॑षु॒धिस्तवा॒रे अ॒स्मन्निधे॑हि॒ तम्॥ 1॥
ॐ शम्भ॑वे॒ नमः॑।
नम॑स्ते अस्तु भगवन्-विश्वेश्व॒राय॑ महादे॒वाय॑ त्र्यम्ब॒काय॑ त्रिपुरान्त॒काय॑ त्रिकाग्निका॒लाय॑ कालाग्निरु॒द्राय॑ नील॒कण्ठाय॑ मृत्युञ्ज॒याय॑ सर्वेश्व॑राय॑ सदाशि॒वाय॑ श्रीमन्-महादे॒वाय॒ नमः॑॥
नमो॒ हिर॑ण्य बाहवे सेना॒न्ये॑ दि॒शां च॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ वृ॒क्षेभ्यो॒ हरि॑केशेभ्यः पशू॒नां पत॑ये॒ नमो॒ नमः॑ स॒स्पिञ्ज॑राय॒ त्विषी॑मते पथी॒नां पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ बभ्लु॒शाय॑ विव्या॒धिनेஉन्ना॑नां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॒ हरि॑केशायोपवी॒तिने॑ पु॒ष्टानां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ भ॒वस्य॑ हे॒त्यै जग॑तां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ रु॒द्राया॑तता॒विने॒ क्षेत्रा॑णां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमः॑ सू॒तायाहं॑त्याय॒ वना॑नां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॒ रोहि॑ताय स्थ॒पत॑ये वृ॒क्षाणां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ म॒न्त्रिणे॑ वाणि॒जाय॒ कक्षा॑णां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ भुव॒न्तये॑ वारिवस्कृ॒ता-यौष॑धीनां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नम॑ उ॒च्चैर्-घो॑षायाक्र॒न्दय॑ते पत्ती॒नां पत॑ये॒ नमो॒ नमः॑ कृत्स्नवी॒ताय॒ धाव॑ते॒ सत्त्व॑नां॒ पत॑ये॒ नमः॑॥ 2॥
नमः॒ सह॑मानाय निव्या॒धिन॑ आव्या॒धिनी॑नां॒ पत॑ये नमो॒ नमः॑ ककु॒भाय॑ निष॒ङ्गिणे॓ स्ते॒नानां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ निष॒ङ्गिण॑ इषुधि॒मते॑ तस्क॑राणां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमो॒ वञ्च॑ते परि॒वञ्च॑ते स्तायू॒नां पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑ निचे॒रवे॑ परिच॒रायार॑ण्यानां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नमः॑ सृका॒विभ्यो॒ जिघाग्ं॑सद्भ्यो मुष्ण॒तां पत॑ये॒ नमो॒ नमो॑உसि॒मद्भ्यो॒ नक्त॒ञ्चर॑द्भ्यः प्रकृ॒न्तानां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नम॑ उष्णी॒षिने॑ गिरिच॒राय॑ कुलु॒ञ्चानां॒ पत॑ये॒ नमो॒ नम॒ इषु॑मद्भ्यो धन्वा॒विभ्य॑श्च वो॒ नमो॒ नम॑ आतन्-वा॒नेभ्यः॑ प्रति॒दधा॑नेभ्यश्च वो॒ नमो॒ नम॑ आ॒यच्छ॒॑द्भ्यो विसृ॒जद्-भ्य॑श्च वो॒ नमो॒ नमोஉस्स॑द्भ्यो॒ विद्य॑द्-भ्यश्च वो॒ नमो॒ नम॒ आसी॑नेभ्यः॒ शया॑नेभ्यश्च वो॒ नमो॒ नमः॑ स्व॒पद्भ्यो॒ जाग्र॑द्-भ्यश्च वो॒ नमो॒ नम॒स्तिष्ठ॑द्भ्यो॒ धाव॑द्-भ्यश्च वो॒ नमो॒ नमः॑ स॒भाभ्यः॑ स॒भाप॑तिभ्यश्च वो॒ नमो॒ नमो॒ अश्वे॒भ्योஉश्व॑पतिभ्यश्च वो॒ नमः॑॥ 3॥
नम॑ आव्या॒धिनी॓भ्यो वि॒विध्य॑न्तीभ्यश्च वो॒ नमो॒ नम॒ उग॑णाभ्यस्तृगं-ह॒तीभ्यश्च॑ वो॒ नमो॒ नमो॑ गृ॒त्सेभ्यो॑ गृ॒त्सप॑तिभ्यश्च वो॒ नमो॒ नमो॒ व्राते॓भ्यो॒ व्रात॑पतिभ्यश्च वो॒ नमो॒ नमो॑ ग॒णेभ्यो॑ ग॒णप॑तिभ्यश्च वो॒ नमो॒ नमो॒ विरू॑पेभ्यो वि॒श्वरू॑पेभ्यश्च वो॒ नमो॒ नमो॑ मह॒द्भ्यः॑, क्षुल्ल॒केभ्य॑श्च वो॒ नमो॒ नमो॑ र॒थिभ्यो॒உर॒थेभ्य॑श्च वो॒ नमो॒ नमो॒ रथे॓भ्यो॒ रथ॑पतिभ्यश्च वो॒ नमो॒ नमः॑ सेना॓भ्यः सेना॒निभ्य॑श्च वो॒ नमो॒ नमः॑, क्ष॒त्तृभ्यः॑ सङ्ग्रही॒तृभ्य॑श्च वो॒ नमो॒ नम॒स्तक्ष॑भ्यो रथका॒रेभ्य॑श्च वो॒ नमो॑ नमः॒ कुला॑लेभ्यः क॒र्मारे॓भ्यश्च वो॒ नमो॒ नमः॑ पु॒ञ्जिष्टे॓भ्यो निषा॒देभ्य॑श्च वो॒ नमो॒ नमः॑ इषु॒कृद्भ्यो॑ धन्व॒कृद्-भ्य॑श्च वो॒ नमो॒ नमो॑ मृग॒युभ्यः॑ श्व॒निभ्य॑श्च वो॒ नमो॒ नमः॒ श्वभ्यः॒ श्वप॑तिभ्यश्च वो॒ नमः॑॥ 4॥
नमो॑ भ॒वाय॑ च रु॒द्राय॑ च॒ नमः॑ श॒र्वाय॑ च पशु॒पत॑ये च॒ नमो॒ नील॑ग्रीवाय च शिति॒कण्ठा॑य च॒ नमः॑ कप॒र्धिने॑ च॒ व्यु॑प्तकेशाय च॒ नमः॑ सहस्रा॒क्षाय॑ च श॒तध॑न्वने च॒ नमो॑ गिरि॒शाय॑ च शिपिवि॒ष्टाय॑ च॒ नमो॑ मी॒ढुष्ट॑माय॒ चेषु॑मते च॒ नमो॓ ह्र॒स्वाय॑ च वाम॒नाय॑ च॒ नमो॑ बृह॒ते च॒ वर्षी॑यसे च॒ नमो॑ वृ॒द्धाय॑ च स॒ंवृध्व॑ने च॒ नमो॒ अग्रि॑याय च प्रथ॒माय॑ च॒ नम॑ आ॒शवे॑ चाजि॒राय॑ च॒ नमः॒ शीघ्रि॑याय च॒ शीभ्या॑य च॒ नम॑ ऊ॒र्म्या॑य चावस्व॒न्या॑य च॒ नमः॑ स्त्रोत॒स्या॑य च॒ द्वीप्या॑य च॥ 5॥
नमो॓ ज्ये॒ष्ठाय॑ च कनि॒ष्ठाय॑ च॒ नमः॑ पूर्व॒जाय॑ चापर॒जाय॑ च॒ नमो॑ मध्य॒माय॑ चापग॒ल्भाय॑ च॒ नमो॑ जघ॒न्या॑य च॒ बुध्नि॑याय च॒ नमः॑ सो॒भ्या॑य च प्रतिस॒र्या॑य च॒ नमो॒ याम्या॑य च॒ क्षेम्या॑य च॒ नम॑ उर्व॒र्या॑य च॒ खल्या॑य च॒ नमः॒ श्लोक्या॑य चाஉवसा॒न्या॑य च॒ नमो॒ वन्या॑य च॒ कक्ष्या॑य च॒ नमः॑ श्र॒वाय॑ च प्रतिश्र॒वाय॑ च॒ नम॑ आ॒शुषे॑णाय चा॒शुर॑थाय च॒ नमः॒ शूरा॑य चावभिन्द॒ते च॒ नमो॑ व॒र्मिणे॑ च वरू॒धिने॑ च॒ नमो॑ बि॒ल्मिने॑ च कव॒चिने॑ च॒ नमः॑ श्रु॒ताय॑ च श्रुतसे॑नाय॒ च॥ 6॥
नमो॑ दुन्दु॒भ्या॑य चाहन॒न्या॑य च॒ नमो॑ धृ॒ष्णवे॑ च प्रमृ॒शाय॑ च॒ नमो॑ दू॒ताय॑ च प्रहि॑ताय च॒ नमो॑ निष॒ङ्गिणे॑ चेषुधि॒मते॑ च॒ नम॑स्-ती॒क्ष्णेष॑वे चायु॒धिने॑ च॒ नमः॑ स्वायु॒धाय॑ च सु॒धन्व॑ने च॒ नमः॒ स्रुत्या॑य च॒ पथ्या॑य च॒ नमः॑ का॒ट्या॑य च नी॒प्या॑य च॒ नमः॒ सूद्या॑य च सर॒स्या॑य च॒ नमो॑ ना॒द्याय॑ च वैश॒न्ताय॑ च॒ नमः॒ कूप्या॑य चाव॒ट्या॑य च॒ नमो॒ वर्ष्या॑य चाव॒र्ष्याय॑ च॒ नमो॑ मे॒घ्या॑य च विद्यु॒त्या॑य च॒ नम ई॒ध्रिया॑य चात॒प्या॑य च॒ नमो॒ वात्या॑य च॒ रेष्मि॑याय च॒ नमो॑ वास्त॒व्या॑य च वास्तु॒पाय॑ च॥ 7॥
नमः॒ सोमा॑य च रु॒द्राय॑ च॒ नम॑स्ता॒म्राय॑ चारु॒णाय॑ च॒ नमः॑ श॒ङ्गाय॑ च पशु॒पत॑ये च॒ नम॑ उ॒ग्राय॑ च भी॒माय॑ च॒ नमो॑ अग्रेव॒धाय॑ च दूरेव॒धाय॑ च॒ नमो॑ ह॒न्त्रे च॒ हनी॑यसे च॒ नमो॑ वृ॒क्षेभ्यो॒ हरि॑केशेभ्यो॒ नम॑स्ता॒राय॒ नम॑श्श॒म्भवे॑ च मयो॒भवे॑ च॒ नमः॑ शङ्क॒राय॑ च मयस्क॒राय॑ च॒ नमः॑ शि॒वाय॑ च शि॒वत॑राय च॒ नम॒स्तीर्थ्या॑य च॒ कूल्या॑य च॒ नमः॑ पा॒र्या॑य चावा॒र्या॑य च॒ नमः॑ प्र॒तर॑णाय चो॒त्तर॑णाय च॒ नम॑ आता॒र्या॑य चाला॒द्या॑य च॒ नमः॒ शष्प्या॑य च॒ फेन्या॑य च॒ नमः॑ सिक॒त्या॑य च प्रवा॒ह्या॑य च॥ 8॥
नम॑ इरि॒ण्या॑य च प्रप॒थ्या॑य च॒ नमः॑ किग्ंशि॒लाय॑ च॒ क्षय॑णाय च॒ नमः॑ कप॒र्दिने॑ च॒ पुल॒स्तये॑ च॒ नमो॒ गोष्ठ्या॑य च॒ गृह्या॑य च॒ नम॒स्-तल्प्या॑य च॒ गेह्या॑य च॒ नमः॑ का॒ट्या॑य च गह्वरे॒ष्ठाय॑ च॒ नमो॓ हृद॒य्या॑य च निवे॒ष्प्या॑य च॒ नमः॑ पाग्ं स॒व्या॑य च रज॒स्या॑य च॒ नमः॒ शुष्क्या॑य च हरि॒त्या॑य च॒ नमो॒ लोप्या॑य चोल॒प्या॑य च॒ नम॑ ऊ॒र्म्या॑य च सू॒र्म्या॑य च॒ नमः॑ प॒र्ण्याय च पर्णश॒द्या॑य च॒ नमो॑ पगु॒रमा॑णाय चाभिघ्न॒ते च॒ नम॑ आख्खिद॒ते च॒ प्रख्खिद॒ते च॒ नमो॑ वः किरि॒केभ्यो॑ दे॒वाना॒ग्ं॒ हृद॑येभ्यो॒ नमो॑ विक्षीण॒केभ्यो॒ नमो॑ विचिन्व॒त्-केभ्यो॒ नम॑ आनिर् ह॒तेभ्यो॒ नम॑ आमीव॒त्-केभ्यः॑॥ 9॥
द्रापे॒ अन्ध॑सस्पते॒ दरि॑द्र॒न्-नील॑लोहित।
ए॒षां पुरु॑षाणामे॒षां प॑शू॒नां मा भेर्मा रो॒ मो ए॑षां॒ किञ्च॒नाम॑मत्।
या ते॑ रुद्र शि॒वा त॒नूः शि॒वा वि॒श्वाह॑भेषजी।
शि॒वा रु॒द्रस्य॑ भेष॒जी तया॑ नो मृड जी॒वसे॓॥
इ॒माग्ं रु॒द्राय॑ त॒वसे॑ कप॒र्दिने॓ क्ष॒यद्वी॑राय॒ प्रभ॑रामहे म॒तिम्।
यथा॑ नः॒ शमस॑द् द्वि॒पदे॒ चतु॑ष्पदे॒ विश्वं॑ पु॒ष्टं ग्रामे॑ अ॒स्मिन्नना॑तुरम्।
मृ॒डा नो॑ रुद्रो॒त नो॒ मय॑स्कृधि क्ष॒यद्वी॑राय॒ नम॑सा विधेम ते।
यच्छं च॒ योश्च॒ मनु॑राय॒जे पि॒ता तद॑श्याम॒ तव॑ रुद्र॒ प्रणी॑तौ।
मा नो॑ म॒हान्त॑मु॒त मा नो॑ अर्भ॒कं मा न॒ उक्ष॑न्तमु॒त मा न॑ उक्षि॒तम्।
मा नो॑உवधीः पि॒तरं॒ मोत मा॒तरं॑ प्रि॒या मा न॑स्त॒नुवो॑ रुद्र रीरिषः।
मा न॑स्तो॒के तन॑ये॒ मा न॒ आयु॑षि॒ मा नो॒ गोषु॒ मा नो॒ अश्वे॑षु रीरिषः।
वी॒रान्मा नो॑ रुद्र भामि॒तोஉव॑धीर्-ह॒विष्म॑न्तो॒ नम॑सा विधेम ते।
आ॒रात्ते॑ गो॒घ्न उ॒त पू॑रुष॒घ्ने क्ष॒यद्वी॑राय सु॒म्-नम॒स्मे ते॑ अस्तु।
रक्षा॑ च नो॒ अधि॑ च देव ब्रू॒ह्यथा॑ च नः॒ शर्म॑ यच्छ द्वि॒बर्हा॓ः।
स्तु॒हि श्रु॒तं ग॑र्त॒सदं॒ युवा॑नं मृ॒गन्न भी॒ममु॑पह॒न्तुमु॒ग्रम्।
मृ॒डा ज॑रि॒त्रे रु॑द्र॒ स्तवा॑नो अ॒न्यन्ते॑ अ॒स्मन्निव॑पन्तु॒ सेना॓ः।
परि॑णो रु॒द्रस्य॑ हे॒तिर्-वृ॑णक्तु॒ परि॑ त्वे॒षस्य॑ दुर्म॒ति र॑घा॒योः।
अव॑ स्थि॒रा म॒घव॑द्-भ्यस्-तनुष्व मीढ्-व॑स्तो॒काय॒ तन॑याय मृडय।
मीढु॑ष्टम॒ शिव॑मत शि॒वो नः॑ सु॒मना॑ भव।
प॒र॒मे वृ॒क्ष आयु॑धन्नि॒धाय॒ कृत्तिं॒ वसा॑न॒ आच॑र॒ पिना॑कं॒ बिभ्र॒दाग॑हि।
विकि॑रिद॒ विलो॑हित॒ नम॑स्ते अस्तु भगवः।
यास्ते॑ स॒हस्रग्ं॑ हे॒तयो॒न्यम॒स्मन्-निव॒पन्तु ताः।
स॒हस्रा॑णि सहस्र॒धा बा॑हु॒वोस्तव॑ हे॒तयः॑।
तासा॒मीशा॑नो भगवः परा॒चीना॒ मुखा॑ कृधि॥ 10॥
स॒हस्रा॑णि सहस्र॒शो ये रु॒द्रा अधि॒ भूम्या॓म्।
तेषाग्ं॑ सहस्रयोज॒नेव॒धन्वा॑नि तन्मसि।
अ॒स्मिन्-म॑ह॒त्-य॑र्ण॒वे॓न्तरि॑क्षे भ॒वा अधि॑।
नील॑ग्रीवाः शिति॒कण्ठा॓ः श॒र्वा अ॒धः, क्ष॑माच॒राः।
नील॑ग्रीवाः शिति॒कण्ठा॒ दिवग्ं॑ रु॒द्रा उप॑श्रिताः।
ये वृ॒क्षेषु॑ स॒स्पिञ्ज॑रा॒ नील॑ग्रीवा॒ विलो॑हिताः।
ये भू॒ताना॒म्-अधि॑पतयो विशि॒खासः॑ कप॒र्दि॑नः।
ये अन्ने॑षु वि॒विध्य॑न्ति॒ पात्रे॑षु॒ पिब॑तो॒ जनान्॑।
ये प॒थां प॑थि॒रक्ष॑य ऐलबृ॒दा॑ य॒व्युधः॑।
ये ती॒र्थानि॑ प्र॒चर॑न्ति सृ॒काव॑न्तो निष॒ङ्गिणः॑।
य ए॒ताव॑न्तश्च॒ भूयाग्ं॑सश्च॒ दिशो॑ रु॒द्रा वि॑तस्थि॒रे।
तेषाग्ं॑ सहस्रयोज॒नेव॒धन्वा॑नि तन्मसि।
नमो॑ रु॒ध्रेभ्यो॒ ये पृ॑थि॒व्यां ये॓न्तरि॑क्षे ये दि॒वि येषा॒मन्नं॒ वातो॑ व॒र्-ष॒मिष॑व॒स्-तेभ्यो॒ दश॒ प्राची॒र्दश॑ दक्षि॒णा दश॑ प्र॒तीची॒र्-दशो-दी॑ची॒र्-दशो॒र्ध्वास्-तेभ्यो॒ नम॒स्ते नो॑ मृडयन्तु॒ ते यं द्वि॒ष्मो यश्च॑ नो॒ द्वेष्टि॒ तं वो॒ जम्भे॑ दधामि॥ 11॥
त्र्यं॑बकं यजामहे सुग॒न्धिं पु॑ष्टि॒वर्ध॑नम्। उ॒र्वा॒रु॒कमि॑व॒ बन्ध॑नान्-मृत्यो॑र्-मुक्षीय॒ मा मृता॓त्।
यो रु॒द्रो अ॒ग्नौ यो अ॒प्सु य ओष॑धीषु॒ यो रु॒द्रो विश्वा॒ भुव॑ना वि॒वेश॒ तस्मै॑ रु॒द्राय॒ नमो॑ अस्तु।
तमु॑ ष्टु॒हि॒ यः स्वि॒षुः सु॒धन्वा॒ यो विश्व॑स्य॒ क्षय॑ति भेष॒जस्य॑।
यक्ष्वा॓म॒हे सौ॓मन॒साय॑ रु॒द्रं नमो॓भिर्-दे॒वमसु॑रं दुवस्य।
अ॒यं मे॒ हस्तो॒ भग॑वान॒यं मे॒ भग॑वत्तरः।
अ॒यं मे॓ वि॒श्वभे॓षजो॒यग्ं शि॒वाभि॑मर्शनः।
ये ते॑ स॒हस्र॑म॒युतं॒ पाशा॒ मृत्यो॒ मर्त्या॑य॒ हन्त॑वे।
तान् य॒ज्ञस्य॑ मा॒यया॒ सर्वा॒नव॑ यजामहे।
मृ॒त्यवे॒ स्वाहा॑ मृ॒त्यवे॒ स्वाहा॓।
ॐ नमो भगवते रुद्राय विष्णवे मृत्यु॑र्मे पा॒हि॥
प्राणानां ग्रन्थिरसि रुद्रो मा॑ विशा॒न्तकः। तेनान्नेना॓प्याय॒स्व॥
सदाशि॒वोम्।
ॐ शान्तिः॒ शान्तिः॒ शान्तिः॑
ॐ अग्ना॑विष्णो स॒जोष॑से॒माव॑र्धन्तु वां॒ गिरः॑।
द्यु॒म्नैर्-वाजे॑भिराग॑तम्।
वाज॑श्च मे प्रस॒वश्च॑ मे॒ प्रय॑तिश्च मे॒ प्रसि॑तिश्च मे धी॒तिश्च॑ मे क्रतु॑श्च मे॒ स्वर॑श्च मे॒ श्लोक॑श्च मे॒ श्रा॒वश्च॑ मे॒ श्रुति॑श्च मे॒ ज्योति॑श्च मे॒ सुव॑श्च मे प्रा॒णश्च॑ मे पा॒नश्च॑ मे व्या॒नश्च॒ मे सु॑श्च मे चि॒त्तं च॑ म॒ आधी॑तं च मे॒ वाक्च॑ मे॒ मन॑श्च मे॒ चक्षु॑श्च मे॒ श्रोत्रं॑ च मे॒ दक्ष॑श्च मे॒ बलं॑ च म॒ ओज॑श्च मे॒ सह॑श्च म॒ आयु॑श्च मे ज॒रा च॑ म आ॒त्मा च॑ मे त॒नूश्च॑ मे॒ शर्म॑ च मे॒ वर्म॑ च॒ मे ङ्गा॑नि च मे॒ स्थानि॑ च मे॒ परूग्ं॑षि च मे॒ शरी॑राणि च मे॥ 1॥
जैष्ठ्यं॑ च म॒ आधि॑पत्यं च मे म॒न्युश्च॑ मे॒ भाम॑श्च॒ मे म॑श्च॒ मे म्भ॑श्च मे जे॒मा च॑ मे महि॒मा च॑ मे वरि॒मा च॑ मे प्रथि॒मा च॑ मे व॒र्ष्मा च॑ मे द्राघु॒या च॑ मे वृ॒द्धं च॑ मे॒ वृद्धि॑श्च मे स॒त्यं च॑ मे श्र॒द्धा च॑ मे॒ जग॑च्च मे॒ धनं॑ च मे॒ वश॑श्च मे॒ त्विषि॑श्च मे क्री॒डा च॑ मे॒ मोद॑श्च मे जा॒तं च॑ मे जनि॒ष्यमा॑णं च मे सू॒क्तं च॑ मे सुकृ॒तं च॑ मे वि॒त्तं च॑ मे॒ वेद्यं॑ च मे भूतं च॑ मे भवि॒ष्यच्च॑ मे सु॒गं च॑ मे सु॒पथं च म ऋ॒द्धं च म ऋद्धिश्च मे क्लु॒प्तं च॑ मे॒ क्लुप्ति॑श्च मे म॒तिश्च॑ मे सुम॒तिश्च॑ मे॥ 2॥
शं च॑ मे॒ मय॑श्च मे प्रि॒यं च॑ मे नुका॒मश्च॑ मे॒ काम॑श्च मे सौमनस॒श्च॑ मे भ॒द्रं च॑ मे॒ श्रेय॑श्च मे॒ वस्य॑श्च मे॒ यश॑श्च मे॒ भग॑श्च मे॒ द्रवि॑णं च मे य॒न्ता च॑ मे ध॒र्ता च॑ मे॒ क्षेम॑श्च मे॒ धृति॑श्च मे॒ विश्वं॑ च मे॒ मह॑श्च मे स॒ंविच्च॑ मे॒ ज्ञात्रं॑ च मे॒ सूश्च॑ मे प्र॒सूश्च॑ मे॒ सीरं॑ च मे ल॒यश्च॑ म ऋ॒तं च॑ मे॒உमृतं॑ च मेஉय॒क्ष्मं च॒ मे ना॑मयच्च मे जी॒वातु॑श्च मे दीर्घायु॒त्वं च॑ मेஉनमि॒त्रं च॒ मे भ॑यं च मे सु॒गं च॑ मे॒ शय॑नं च मे सू॒षा च॑ मे॒ सु॒दिनं॑ च मे॥ 3॥
ऊर्क्च॑ मे सू॒नृता॑ च मे॒ पय॑श्च मे॒ रस॑श्च मे घृ॒तं च॑ मे॒ मधु॑ च मे॒ सग्धि॑श्च मे॒ सपी॑तिश्च मे कृ॒षिश्च॑ मे॒ वृष्टि॑श्च मे॒ जैत्रं॑ च म॒ औद्भि॑द्यं च मे र॒यिश्च॑ मे॒ राय॑श्च मे पु॒ष्टं च मे॒ पुष्टि॑श्च मे वि॒भु च॑ मे प्र॒भु च॑ मे ब॒हु च॑ मे॒ भूय॑श्च मे पू॒र्णं च॑ मे पू॒र्णत॑रं च॒ मे क्षि॑तिश्च मे॒ कूय॑वाश्च॒ मे न्नं॑ च॒ मे क्षु॑च्च मे व्री॒हय॑श्च मे॒ यवा॓श्च मे॒ माषा॓श्च मे॒ तिला॓श्च मे मु॒द्गाश्च॑ मे ख॒ल्वा॓श्च मे गो॒धूमा॓श्च मे म॒सुरा॓श्च मे प्रि॒यङ्ग॑वश्च॒ मेஉण॑वश्च मे श्या॒माका॓श्च मे नी॒वारा॓श्च मे॥ 4॥
अश्मा च॑ मे॒ मृत्ति॑का च मे गि॒रय॑श्च मे॒ पर्व॑ताश्च मे॒ सिक॑ताश्च मे॒ वन॒स्-पत॑यश्च मे॒ हिर॑ण्यं च॒ मे य॑श्च मे॒ सीसं॑ च॒ मे त्रपु॑श्च मे श्या॒मं च॑ मे लो॒हं च॑ मे ग्निश्च॑ म आप॑श्च मे वी॒रुध॑श्च म॒ ओष॑धयश्च मे कृष्णप॒च्यं च॑ मे कृष्णपच्यं च॑ मे ग्रा॒म्याश्च॑ मे प॒शव॑ आर॒ण्याश्च॑ य॒ज्ञेन॑ कल्पन्तां वि॒त्तं च॑ मे॒ वित्ति॑श्च मे भू॒तं च॑ मे भूति॑श्च मे॒ वसु॑ च मे वस॒तिश्च॑ मे॒ कर्म॑ च मे॒ शक्ति॑श्च॒ मेஉर्थ॑श्च म॒ एम॑श्च म इति॑श्च मे॒ गति॑श्च मे॥ 5॥
अ॒ग्निश्च॑ म॒ इन्द्र॑श्च मे॒ सोम॑श्च म॒ इन्द्र॑श्च मे सवि॒ता च॑ म॒ इन्द्र॑श्च मे॒ सर॑स्वती च म॒ इन्द्र॑श्च मे पू॒षा च॑ म॒ इन्द्र॑श्च मे॒ बृह॒स्पति॑श्च म॒ इन्द्र॑श्च मे मि॒त्रश्च॑ म॒ इन्द्र॑श्च मे॒ वरु॑णश्च म॒ इन्द्र॑श्च मे॒ त्वष्ठा॑ च म॒ इन्द्र॑श्च मे धा॒ता च॑ म॒ इन्द्र॑श्च मे॒ विष्णु॑श्च म॒ इन्द्र॑श्च मे श्विनौ॑ च म॒ इन्द्र॑श्च मे म॒रुत॑श्च म॒ इन्द्र॑श्च मे॒ विश्वे॑ च मे दे॒वा इन्द्र॑श्च मे पृथि॒वी च॑ म॒ इन्द्र॑श्च मेஉन्तरि॑क्षं च म॒ इन्द्र॑श्च मे द्यौश्च॑ म॒ इन्द्र॑श्च मे॒ दिश॑श्च म॒ इन्द्र॑श्च मे मू॒र्धा च॑ म॒ इन्द्र॑श्च मे प्र॒जाप॑तिश्च म॒ इन्द्र॑श्च मे॥ 6॥
अ॒ग्ं॒शुश्च॑ मे र॒श्मिश्च॒ मेஉदा॓भ्यश्च॒ मेஉधि॑पतिश्च म उपा॒ग्ं॒शुश्च॑ मेஉन्तर्या॒मश्च॑ म ऐन्द्रवाय॒वश्च॑ मे मैत्रावरु॒णश्च॑ म आश्वि॒नश्च॑ मे प्रतिप्र॒स्थान॑श्च मे शु॒क्रश्च॑ मे म॒न्थी च॑ म आग्रय॒णश्च॑ मे वैश्वदे॒वश्च॑ मे ध्रु॒वश्च॑ मे वैश्वान॒रश्च॑ म ऋतुग्र॒हाश्च॑ मेஉतिग्रा॒ह्या॓श्च म ऐन्द्रा॒ग्नश्च॑ मे वैश्वदे॒वश्च॑ मे मरुत्व॒तीया॓श्च मे माहे॒न्द्रश्च॑ म आदि॒त्यश्च॑ मे सावि॒त्रश्च॑ मे सारस्व॒तश्च॑ मे पौ॒ष्णश्च॑ मे पात्नीव॒तश्च॑ मे हारियोज॒नश्च॑ मे॥ 7॥
इ॒ध्मश्च॑ मे ब॒र्हिश्च॑ मे॒ वेदि॑श्च मे॒ दिष्णि॑याश्च मे॒ स्रुच॑श्च मे चम॒साश्च॑ मे॒ ग्रावा॑णश्च मे॒ स्वर॑वश्च म उपर॒वाश्च॑ मेஉधि॒षव॑णे च मे द्रोणकल॒शश्च॑ मे वाय॒व्या॑नि च मे पूत॒भृच्च॑ म आधव॒नीय॑श्च म॒ आग्नी॓ध्रं च मे हवि॒र्धानं॑ च मे गृ॒हाश्च॑ मे॒ सद॑श्च मे पुरो॒डाशा॓श्च मे पच॒ताश्च॑ मे वभृथश्च॑ मे स्वगाका॒रश्च॑ मे॥ 8॥
अ॒ग्निश्च॑ मे घ॒र्मश्च॑ मे॒உर्कश्च॑ मे॒ सूर्य॑श्च मे प्रा॒णश्च॑ मेஉश्वमे॒धश्च॑ मे पृथि॒वी च॒ मेஉदि॑तिश्च मे॒ दिति॑श्च मे॒ द्यौश्च॑ मे॒ शक्व॑रीर॒ङ्गुल॑यो॒ दिश॑श्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ता॒मृक्च॑ मे॒ साम॑ च मे॒ स्तोम॑श्च मे॒ यजु॑श्च मे दी॒क्षा च॑ मे॒ तप॑श्च म ऋ॒तुश्च॑ मे व्र॒तं च॑ मे होरा॒त्रयो॓र्-दृ॒ष्ट्या बृ॑हद्रथन्त॒रे च॒ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पेताम्॥ 9॥
गर्भा॓श्च मे व॒त्साश्च॑ मे॒ त्र्यवि॑श्च मे त्र्य॒वीच॑ मे दित्य॒वाट् च॑ मे दित्यौ॒ही च॑ मे॒ पञ्चा॑विश्च मे पञ्चा॒वी च॑ मे त्रिव॒त्सश्च॑ मे त्रिव॒त्सा च॑ मे तुर्य॒वाट् च॑ मे तुर्यौ॒ही च॑ मे पष्ठ॒वाट् च॑ मे पष्ठौ॒ही च॑ म उ॒क्षा च॑ मे व॒शा च॑ म ऋष॒भश्च॑ मे वे॒हच्च॑ मे न॒ड्वां च मे धे॒नुश्च॑ म॒ आयु॑र्-य॒ज्ञेन॑ कल्पतां प्रा॒णो य॒ज्ञेन॑ कल्पताम्-अपा॒नो य॒ज्ञेन॑ कल्पतां॒ व्या॒नो य॒ज्ञेन॑ कल्पतां॒ चक्षु॑र्-य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ग्॒ श्रोत्रं॑ य॒ज्ञेन॑ कल्पतां॒ मनो॑ य॒ज्ञेन॑ कल्पतां॒ वाग्-य॒ज्ञेन॑ कल्पताम्-आ॒त्मा य॒ज्ञेन॑ कल्पतां य॒ज्ञो य॒ज्ञेन॑ कल्पताम्॥ 10॥
एका॑ च मे ति॒स्रश्च॑ मे॒ पञ्च॑ च मे स॒प्त च॑ मे॒ नव॑ च म॒ एका॑दश च मे॒ त्रयो॒दश च मे॒ पञ्च॑दश च मे स॒प्तद॑श च मे॒ नव॑दश च म॒ एक॑विग्ंशतिश्च मे॒ त्रयो॑विग्ंशतिश्च मे॒ पञ्च॑विग्ंशतिश्च मे स॒प्त विग्ं॑शतिश्च मे॒ नव॑विग्ंशतिश्च म॒ एक॑त्रिग्ंशच्च मे॒ त्रय॑स्त्रिग्ंशच्च मे॒ चत॑स्-रश्च मे॒உष्टौ च॑ मे॒ द्वाद॑श च मे॒ षोड॑श च मे विग्ंश॒तिश्च॑ मे॒ चतु॑र्विग्ंशतिश्च मे॒உष्टाविग्ं॑शतिश्च मे॒ द्वात्रिग्ं॑शच्च मे॒ षट्-त्रिग्ं॑शच्च मे चत्वारि॒ग्॒ंशच्च॑ मे॒ चतु॑श्-चत्वारिग्ंशच्च मे ष्टाच॑त्वारिग्ंशच्च मे॒ वाज॑श्च प्रस॒वश्चा॑पि॒जश्च क्रतु॑श्च॒ सुव॑श्च मू॒र्धा च॒ व्यश्नि॑यश्-चान्त्याय॒नश्-चान्त्य॑श्च भौव॒नश्च॒ भुव॑न॒श्-चाधि॑पतिश्च॥ 11॥
ॐ इडा॑ देव॒हूर्-मनु॑र्-यज्ञ॒नीर्-बृह॒स्पति॑रुक्थाम॒दानि॑ शग्ंसिष॒द्-विश्वे॑-दे॒वाः सू॓क्त॒वाचः॒ पृथि॑विमात॒र्मा मा॑ हिग्ंसी॒र्-म॒धु॑ मनिष्ये॒ मधु॑ जनिष्ये॒ मधु॑ वक्ष्यामि॒ मधु॑ वदिष्यामि॒ मधु॑मतीं दे॒वेभ्यो॒ वाच॒मुद्यासग्ंशुश्रूषे॒ण्या॓म् मनु॒ष्ये॓भ्य॒स्तं मा॑ दे॒वा अ॑वन्तु शो॒भायै॑ पि॒तरोஉनु॑मदन्तु॥
॥ॐ शान्तिः॒ शान्तिः॒ शान्तिः॑॥
रूद्र पाठ को करने की विधि
वेदों के अनुसार, रुद्रपूजन का साधारण सा अर्थ होता है कि, भगवान भोले शंकर की ऐसी पूजा जो व्यक्ति के समस्त दुखों एवं कष्टों को नष्ट कर देती है। यजुर्वेद में इसका अनेकों बार उल्लेख किया गया है। भगवान् भोले शंकर के इस रूद्र पूजा से व्यक्ति को विशेष फायदा मिलता है। रूद्र पाठ को करने की विधि इस प्रकार है।
दुध से रुद्राभिषेक
शिव को प्रसन्न करके उनकी कृपा पाने के लिए दुध से अभिषेक करें। भगवान् भोले शंकर के अद्भुत स्वरुप का सच्चे ह्रदय से स्मरण करें। दुध से रुद्राभिषेक करने के लिए ताम्बे के बर्तन को छोड़ कर किसी अन्य धातु से निर्मित बर्तनों का उपयोग करना चाहिए।
विशेषकर तांबे के बर्तन में दही, दुध या पंचामृत नहीं डालना चाहिए। क्योंकि इससे ये सब मदिरा की तरह हो जाते हैं। तांबे के बर्तन के संपर्क से दुध विषैला हो जाता है। इस वजह से तांबे के बर्तन द्वारा दुध से रुद्राभिषेक करना बिलकुल वर्जित किया गया है।
चूँकि तांबे के पात्र से दुध अर्पित कर या उसे भगवान् शिव को अभिषेक कर उन्हें अनजाने में आप जहर अर्पित कर रहे हैं। इसलिए किसी अन्य धातु के पात्र में दूध भरकर पात्र के चारों तरफ कुमकुम का लेप करें। भगवान् शंकर का स्मरण करें। और “ॐ श्री कामधेनवे नमः” मंत्र का जाप करते हुए पात्र पर मौली बांधें। इसके पश्चात “ॐ नमः शिवाय” मंत्र का जाप करते हुए कुछ फूल अर्पित करें।
अब शिव लिंग पर दुध की पतली धार बनाते हुए रुद्राभिषेक करें। दुध से रुद्राभिषेक करते हुए लघु रुद्राभिषेक मंत्र “ॐ सकल लोकैक गुरुर्वै नमः” मंत्र का जाप करें। इसके पश्चात शिवलिंग को स्वच्छ जल से धोकर अच्छी तरह पोंछ लें।
कुमकुम, केसर, हल्दी से अभिषेक
आकर्षक व्यक्तित्व की प्राप्ति के लिए भगवान शिव का कुमकुम, हल्दी, केसर से अभिषेक करें। इसके पश्चात
भगवान शिव के ‘नीलकंठ’ स्वरूप का स्मरण करें। फिर ताम्बे के पात्र में कुमकुम, हल्दी, केसर एवं पंचामृत’ भर कर पात्र के चारों तरफ से कुमकुम का तिलक करें, एवं “ॐ उमायै नम:” का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें। फिर पंचाक्षरी मंत्र “ॐ नम: शिवाय” का जाप करते हुए फुल अर्पित करें। फिर शिवलिंग पर पतली धार बनाते हुए रुद्राभिषेक करें।
अभिषेक का मंत्र “ॐ ह्रौं ह्रौं ह्रौं नीलकंठाय स्वाहा” का जाप करें। इसके पश्चात शिवलिंग पर स्वच्छ जल से भी अभिषेक करें।
जल से रुद्राभिषेक
हर प्रकार के कष्टों से सुरक्षा पाने के लिए भगवान शंकर का जल से अभिषेक करें। भगवान शंकर का स्मरण करें। एवं
एवं ताम्बे के पात्र में ‘शुद्ध जल’ भर कर पात्र के चारों तरफ कुमकुम का तिलक करें। फिर “ॐ इन्द्राय नम:” मंत्र का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें।
फिर पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय” का जाप करते हुए कुछ फूल अर्पित करें। अब शिवलिंग पर जल की पतली धार बनाते हुए रुद्राभिषेक करें। एवं अभिषेक करेत हुए “ॐ तं त्रिलोकीनाथाय स्वाहा ” मंत्र का जाप करें। फिर शिवलिंग का शुद्ध जल से भी अभिषेक करें।
काले तिल से रुद्राभिषेक
बुरी नजर एवं तंत्र बाधा से रक्षा के लिए काले तिल से अभिषेक करें। भगवान शिव के ‘नीलवर्ण’ स्वरुप का स्मरण करें।फिर तांबे के पात्र में “काले तिल” भर कर पात्र के चारों तरफ कुमकुम का तिलक करें। इसके पश्चात “ॐ हुं कालेश्वराय नम:” मंत्र का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें, एवं पंचाक्षरी मंत्र “ॐ नम: शिवाय” का जाप करते हुए कुछ फूल अर्पित करें। फिर शिवलिंग पर काले तिल की धार बनाते हुए रुद्राभिषेक करें। रुद्राभिषेक करते हुए “ॐ क्षौं ह्रौं हुं शिवाय नम:” का जाप करें। फिर शिवलिंग का शुद्ध जल से भी अभिषेक करें।
सरसों के तेल से रुद्राभिषेक
गृहबाधा से छुटकारा पाने के लिए भगवान् शंकर का सरसों के तेल से अभिषेक करें। फिर भगवान् शंकर के प्रलयंकर स्वरुप का स्मरण करें। इसके पश्चात ताम्बे के पात्र में सरसों का तेल भरकर पात्र के चारों तरफ कुमकुम का कुमकुम का तिलक करें। फिर “ॐ भं भैरवाय नमः” मंत्र का जाप करते हुए पात्र पर मौली बांधें। इसके पश्चात पंचाक्षरी मंत्र “ॐ नमः शिवाय” का जाप करते हुए कुछ फुल अर्पित करें। फिर शिवलिंग पर सरसों के तेल की पतली धार बनाते हुए रुद्राभिषेक करें। रुद्राभिषेक करते हुए “ॐ नाथ नाथाम स्वाहा” मंत्र का जाप करें। फिर शिवलिंग का स्वच्छ जल से भी अभिषेक करें।
चने की दाल से रुद्राभिषेक
किसी भी शुभ अथवा मांगलिक कार्य के आरंभ होने व कार्य में उन्नति के लिए भगवान शिव का चने की दाल से रुद्राभिषेक करें। भगवान शिव के “समाधी स्थित “स्वरुप का स्मरण करें। फिर तांबे के पात्र में “चने की दाल” भरकर पात्र के चारों तरफ कुमकुम का तिलक लगाएं। तत्पश्चात “ॐ यक्षनाथाय नम:” का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें। फिर
पंचाक्षरी मंत्र “ॐ नम: शिवाय” का जाप करते हुए कुछ फुल अर्पित करें।
इसके पश्चात शिवलिंग पर चने की दाल की धार बनाते हुए रुद्राभिषेक करें। फिर अभिषेक करेत हुए “ॐ शं शम्भवाय नम:” मंत्र का जाप करें। फिर शिवलिंग को साफ जल से धोकर पोंछ कर साफ कर लें।
शहद मिश्रित गंगाजल से रुद्राभिषेक
पारिवारिक सुख शांति व संतान प्राप्ति के लिए शहद मिश्रित गंगाजल से रुद्राभिषेक करें। भगवान शिव के चंद्रमौलेश्वर स्वरुप का स्मरण करें। फिर तांबे के पात्र में शहद मिश्रित गंगाजल भरकर पात्र के चरों तरफ कुमकुम का तिलक लगाएं। फिर “ॐ चन्द्रमसे नमः” का जाप करते हुए पात्र मौली बांधें।
फिर पंचाक्षरी “ॐ नमः शिवाय” का जाप करते हुए कुछ फुल अर्पित करें। तत्पश्चात शिवलिंग पर शहद मिश्रित गंगाजल की पतली धार बनाते हुए रुद्राभिषेक करें। एवं रुद्राभिषेक करते हुए “ॐ वं चंद्रमौलेश्वराय स्वाहा” का जाप करें। फिर शिवलिंग को स्वच्छ जल से भी अभिषेक कर शिवलिंग को साफ कर लें।
फलों के रस से रुद्राभिषेक
हर प्रकार के कर्ज से मुक्ति एवं अत्यधिक धन की प्राप्ति के लिए भगवान शिव का फलों के रस से रुद्राभिषेक करें।
फिर भगवान शिव के”नीलकंठ” स्वरूप का स्मरण करें। तत्पश्चात तांबे के पात्र में गन्ने का रस भरकर पात्र के चारों तरफ से कुमकुम का तिलक करें। फिर “ॐ कुबेराय नमः” का जाप करते हुए पात्र पर मौली बाधें। फिर पंचाक्षरी मंत्र “ॐ नम: शिवाय” का जाप करते हुए कुछ फुल अर्पित करें।
इसके पश्चात शिवलिंग पर फलों के रस की पतली धार बनाते हुए रुद्राभिषेक करें। अभिषेक करते हुए “ॐ ह्रुं नीलकंठाय स्वाहा” मंत्र का जाप करें। शिवलिंग पर स्वच्छ जल से भी अभिषेक कर शिव लिंग को साफ कर लें।
घी एवं शहद
रोगों के नाश के लिए एवं दीर्घायु के लिए देशी घी एवं शहद से रुद्रभिषेक करें। भगवान् शंकर के त्रयम्बक स्वरुप का स्मरण करें। इसके पश्चात तांबे के पात्र में देशी घी व शहद भरकर पात्र के चारों तरफ से कुमकुम का तिलक करें। फिर “ॐ धन्वन्तरयै नमः” का जाप करते हुए पात्र पर मौली बांधें।
इसके पश्चात पंचाक्षरी मंत्र “ॐ नमः शिवाय” का जाप करते हुए कुछ फुल अर्पित करें। शिवलिंग पर देशी घी व शहद की पतली धार बनाते हुए रुद्राभिषेक करें। एवं रुद्राभिषेक करते हुए “ॐ ह्रौं जूं स: त्रयम्बकाय स्वाहा” मंत्र का जाप करें। फिर शिवलिंग पर स्वच्छ जल से भी अभिषेक करें।
कितने अध्याय रुद्री पाठ में हैं
यजुर्वेद की शुक्लयजुर्वेद संहिता में 8 अध्याय के माध्यम से भगवान् रूद्र का वर्णन किया गया है। जिसे रुद्रास्टाध्यायी कहते हैं। जैसे ह्रदय के बिना मनुष्य का शरीर असंभव है। उसी प्रकार शंकर की आराधना में रुद्रास्टाध्यायी अत्यंत मूल्यवान है। क्योंकि इसके बिना न तो रुद्राभिषेक संभव है, और न ही रुद्री पाठ किया जा सकता है।
रुद्राभिषेक
रुद्रास्टाध्यायी के मंत्र पाठ के साथ-साथ गन्ने का रस, जल आमरस, दुध, पंचामृत, गंगाजल, नारियल का जल इत्यादि से शिवलिंग का रुद्रास्टाध्यायी के मन्त्रों से अभिषेक करने से मनुष्य की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। एवं मृत्यु के पश्चात उसे मोक्ष प्राप्त होता है।
रुद्राष्टाध्यायी के 8 अध्याय
- रुद्राष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय को “शिवसंकल्प सूक्त” कहा जाता है। इसमें साधक का ह्रदय शुभ विचार वाला होना चाहिए। यह अध्याय गणेश जी को समर्पित है।इस अध्याय का पहला मंत्र श्री गणेश का विख्यात मंत्र है।
गणाना त्वा गणपति हवामहे प्रियाणां त्व प्रियपति हवामहे निधीनां त्वा निधिपति हवामहे। वसो मम।
- रुद्राष्टाध्यायी का द्वितीय अध्याय भगवान् विष्णु जी को समर्पित है। इसमें 16 मंत्र ”पुरुष सूक्त”के हैं। जिनके देवता विराट पुरुष हैं। सभी देवताओं का षोडशोपचार पूजन पुरुष सूक्त के मन्त्रों द्वारा ही किया जाता है।
- तृतीय अध्याय के देवता इन्द्र हैं, इस अध्याय को ‘अप्रतिरथ सूक्त’ कहा जाता है। इसके मन्त्रों के द्वारा इन्द्र की उपासना करने से शत्रुओं एवं प्रतिद्वन्द्वियों का नाश होता है।
- चौथा अध्याय मैत्र सूक्त के नाम से प्रचलित है। इसके मन्त्रों में भगवान् सूर्यदेव की सुन्दर व्याख्या एवं स्तुति की गयी है।
- पांचवे अध्याय को शतरुद्रिय, रुद्राध्याय या रुद्रसूक्त कहते हैं। इसको “शतरुद्रिय”, “रुद्राध्याय” या “रुद्रसूक्त” कहते हैं। शतरुद्रिय यजुर्वेद का वहअंश है, जिसमें रुद्र के सौ या उससे अधिक नामों का उल्लेख हैं, एवं उनके द्वारा रुद्रदेव की स्तुति की गयी है। भगवान रुद्र की शतरुद्रीय उपासना से दु:खों का सब प्रकार से विनाश हो जाता है। दु:खों का हमेशा नाश ही मोक्ष कहलाता है. इसमें 66 मंत्र हैं।
- रुद्राष्टाध्यायी के छठे अध्याय को ‘महच्छिर’ कहा जाता है, इसी अध्याय में “महामृत्युंजय” मन्त्र का उल्लेख है, “ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् । त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम् । उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीय मामुत: ।।”
- सातवें अध्याय को जटा कहा जाता है, इस अध्याय के कुछ मंत्र अंत्योष्टि-संस्कार मे प्रयोग किये जाते हैं।
- आठवें अध्याय को “चमकाध्याय” कहा जाता है। इसमें भगवन रूद्र से अपनी मनचाही वस्तुओं की प्रार्थना “च में च में” अर्थात “यह भी मुझे दो, यह भी मुझे दो” शब्दों की पुनरावृत्ति के साथ की गयी है। इस वजह से इसका नाम “चमकम” पड़ा। रुद्राष्टाध्यायी के अंत में शान्त्याध्याय के 24 मन्त्रों में विभिन्न देवताओं से शांति की प्रार्थना की गयी है। तथा स्वस्ति प्रार्थना मन्त्राध्याय में 12 में स्वस्ति (मंगल, कल्याण ,सुख ) प्रार्थना की गयी है।
क्या महत्व है रुद्री पाठ का
रुद्राष्टाध्यायी में कुल 8 पाठ हैं, जिसमें 5वाँ पाठ मुख्य है। यदि किसी व्यक्ति के पास समय की कमी है, तब वह केवल 5 वाँ पाठ ही प्रतिदिन करके शुभ फल प्राप्त कर सकता है। यदि 5वें पाठ को 11 बार किया जाए तब इसे महारुद्र कहा जाता है। सावन के पूरे माह रुद्राष्टाध्यायी का पाठ करने से हर प्रकार के कष्ट एवं संकट से छुटकारा मिलता है। पूरा पाठ ना करके केवल 5वाँ अध्याय करने से भी अच्छे परिणाम मिलते हैं।
रुद्राष्टाध्यायी का पाठ करते समय 5वा तथा 8 वे अध्याय को “नमक चमक पाठ” विधि कहा जाता है। नमक चमक पाठ के 11 आवर्तन पुरे होने पर इसे “एकादशिनि रुद्री” पाठ कहा जाता है, तथा एकादशिनी रुद्री पाठ के 11 आवर्तन पूर्ण होने पर इसे “लघु रुद्री” पाठ कहा जाता है। अत: रुद्राष्टाध्यायी के अभाव में शिवपूजन की कल्पना तक असंभव है।
कैसे करें रुद्री पाठ घर मेँ
यदि आप रुद्री पाठ या रुद्राध्याय घर में करना चाहते हैं, तो इसके लिए घर में स्थित किसी शिवलिंग के पास बैठकर पंचोपचार विधि से भगवान शंकर की पूजा करनी चाहिए। फिर रुद्री पाठ आरम्भ करना चाहिए।
सबसे पहले आप भगवान् शंकर को चन्दन का तिलक लगाएं। उसके बाद उस पर पुष्प चढ़ाएं। फिर अगरबत्ती दिखाएँ। उसके बाद घी का दिया जलाएं। आखिर में प्रसाद चढ़ाना है। इसके पश्चात आप रुद्री पाठ आरम्भ कर सकते हैं। पुस्तक से पढ़कर आप रुद्री पाठ कर सकते हैं। इसमें एक बात का ध्यान रखना है कि, रुद्राष्टाध्यायी के अंत में शांति अध्याय एवं मंगल अध्याय जिसे स्वस्ति कहा जाता है, उसके 24 एवं 12 मन्त्रों का भी जाप करना है।
रुद्री पाठ के लाभ
शास्त्रों के अनुसार हमारे द्वारा किये गए पाप ही हमारे दुखों की वजह होते हैं। “रुद्राभिषेक” एवं “रुद्रार्चन” से हमारी जन्मकुंडली से महापातक एवं पातककर्म भी जलकर नष्ट हो जाते हैं। एवं साधक में शिवत्व का उदय होता है। एवं भगवान् शिव का फलदायक आशीर्वाद प्राप्त होता है। एवं उनकी समस्त मनोकामना पूर्ण होती है। ऐसा माना गया है कि, एकत्र सदाशिव रूद्र से समस्त देवताओं की पूजा स्वतः हो जाती है।
रुद्रहृदयोपनिषद में शिव के बारे में बताया गया है कि, “सर्वदेवात्म को रुद्रः सर्व देवा”; अर्थात समस्त देवताओं में रूद्र की आत्मा विधमान है, एवं सब रूद्र की आत्मा हैं। हमारा शास्त्रों में विविध कामनाओं की पूर्ति हेतु रुद्राभिषेक के पूजन के लिए निर्धारित अनेक द्रव्यों तथा पूजन सामग्री को बताया गया है। साधक रुद्राभिषेक की पूजा अनेक विधि से एवं विविध मनोरथ के साथ की जाती है। किसी विशेष मनोकामना की पूर्ति के लिए उसके अनुसार पूजन सामग्री एवं विधि से रुद्राभिषेक किया जाता है।
- लक्ष्मी प्राप्ति के लिए गन्ने के रस से रुद्राभिषेक करें।
- बीमारी से मुक्ति पाने के लिए इत्र मिश्रित जल से रुद्राभिषेक करना चाहिए।
- वर्षा होने के लिए जल से रुद्राभिषेक करना चाहिए।
- मोक्ष की प्राप्ति के लिए तीर्थ के जल से रुद्राभिषेक करना चाहिए।
- दही से रुद्राभिषेक करने पर भवन-वाहन की प्राप्ति होती है।
- शहद एवं देशी घी के मिश्रण से रुद्राभिषेक करने पर धन में बढ़ोत्तरी होती है।
- कुशोदक से रुद्राभिषेक करने पर असाध्य रोगों से मुक्ति मिलती है।
- यदि संतान मृत पैदा होतो गोदुग्ध से रुद्राभिषेक करें।
- शत्रु को पराजित करने के लिए सरसों के तेल से रुद्राभिषेक करना चाहिए।
- शहद से रुद्राभिषेक करने पर तपेदिक (यक्ष्मा ) नष्ट होता है।
- शकर मिले जल से रुद्राभिषेक करने पर व्यक्ति विद्वान एवं ज्ञानी हो जाता है।
- शहद से रुद्राभिषेक करने से पाठकों का भी विनाश होता है।
- प्रमेह रोग का विनाश भी दूध से रुद्राभिषेक करने पर हो जाता है।
- सहस्त्रनाम मन्त्रों का उच्चारण करते हुए घृत की धारा से रुद्राभिषेक करने पर वंश में वृद्धि होती है।